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गुर्वादि गुण (भाग -1)

प्रिय शिक्षार्थी, संस्कृत गुरुकुल में आपका स्वागत है। इस पोस्ट में हम आयुर्वेदोक्त गुर्वादि गुणों का अध्ययन करेंगे। यह हम प्रत्येक गुण की व्याख्या, प्रधान महाभूत, गुणकर्म, चिकित्सीय महत्त्व, कहाँ वर्जित है, तथा उदाहरण की सहायता से जानने का प्रयास करेंगे। यह विषय पदार्थ विज्ञान के नोट्स, बीएएमएस प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम का हिस्सा है। इसके पिछले अध्याय, द्रव्य निरुपन में, हम पहले ही निम्नलिखित विषयों को शामिल कर चुके हैं:

गुर्वादि गुण को शारीरिक या शारीर गुण भी कहते है। इन्हे सामान्य गुण भी कहा जाता है और इन्हे ही द्रव्य गुण भी कहा जाता है। यह संख्या मे 20 है ।
आचार्य वागभट ने गुर्वादि गुणों को  द्वंद्वगुण के रूप मे प्रस्तुत किया है। इसका अर्थ है दो का जोड़ा जो एक दूसरे के विपरीत धर्म वाले होते है। विभिन्न गुर्वादि गुण को  नीचे वर्णित हैं:

गुर्वादि padarth vigyan, ayurveda, Sansakrit gurukul.

गुर्वादि गुणों के नाम

विंशतिगुणः, गुरूलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षमन्दतीक्ष्णस्थिरसरमृदुकठिनविशदपिच्छिलश्लक्ष्णखरसूक्ष्मस्थूलसान्द्रद्रवानुगमात् । – च.सू.25/36

गुरूमन्दहिमस्निग्धश्लक्ष्णसान्द्र मृदुस्थिराः। गुणा: ससूक्ष्मविशदा विंशति सविपर्ययाः।। अ.हृ.सू.1/18

गुर्वादि गुणों के दस द्वन्द्व

गुरु लघु
मन्द तीक्ष्ण
शीतउष्ण
स्निग्धरूक्ष
स्थिरचल
श्लक्ष्णखर
सान्द्रद्रव
मृदुकठिन
सूक्ष्म स्थूल
विशद पिच्छिल
गुर्वादि गुण

गुरु

(जो शरीर में भारीपन के लिए जिम्मेदार होता है और पाचन में समय लेता है)

यस्य द्रव्यस्य बृंहणे शक्तिः स गुरुः ।

जिस गुण में शरीर में बृंहण (पोषण) कर्म करने की शक्ति होती है, उसे गुरु गुण कहते हैं।

गौरवं पार्थिवमाप्यं च । र.वै. सू.3/116

गुरु गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी और जल महाभूत की प्रधानता होती है। यह अप्रत्यक्ष, नित्य और अनित्य हैं।

सादोपलेपबलकृद् गुरूस्तर्पणबृंहणः। – सु.सू. 46/518

वैशेषिक दर्शन के अनुसार, गुरु वह गुण है : 

  • जो पतन (गिरने की प्रकृति) के लिए असमावयी करण है 
  • सुश्रुत के अनुसार, गुरु गुण  अंगसदा (शरीर में दर्द), 
  • मलवृद्धि, बल्य (ताकत को बढ़ावा देने वाला), 
  • तर्पण (पोषण देता है) और
  •  बृंहण (ऊतकों को बढ़ाता है) का कारण बनता है।

गुरूवातहरं पुष्टिश्लेष्मकृच्चिरपाकी च। भावप्रकाश

भाव प्रकाश के अनुसार: 

  • सादकृद् – अवसाद ( बेहोशी) उत्पन्न होता है।
  • उपलेपकृद् – शरीर को उपलेपित (परत) करता है।
  • बलकृद् – शरीर को बल (ताकत) प्रदान करता है।
  • तर्पण – शरीर को तर्पित करता है।
  • बृंहण – शरीर का पोषण करता है।
  • वातहर – वाता को कम करता है । (वात शांत करता है)
  • श्लेष्मकृत् – कफ को बढ़ाता है। 
  • चिरपाकी – देर से पचने वाला

चिकित्सीय महत्त्व

  • अपतर्पणजन्य व्याधियों में गुरु गुणयुक्त द्रव्यों से की जाती है।
  • शरीर का बल बढ़ाने हेतु इसका प्रयोग किया जाता है। तथा रस, रक्त आदि धातुओ को बढ़ता है। 
  • अत्याग्नि की अवस्थामें गुरु द्रव्य उपयुक्त है।

कहाँ वर्जित है ?

  • सन्तर्पणजन्य व्याधियों में ।
  • अग्निमांद्य की अवस्था में |

उदाहरण

गेहूँ, माष, माहिष दुग्ध, दुग्ध उत्पाद, दही, मूसली आदि ।

लघु 

जो शरीर में हल्कापन के लिए जिम्मेदार होता है और पचाने में आसान होता है

व्याख्या

लंघने लघु।

-अ.हृ.सू. 1 / 18 पर हेमाद्रिटीका

जिससे शरीर में लघुता या हल्कापण उत्त्पन्न हो, उस गुण को लघु गुण कहते हैं।

महाभूत प्राधान्य

लघूनि हि द्रव्याणि वाय्वग्निगुणबहुलानि भवन्ति । च.सू.⅚

लघु गुणयुक्त द्रव्यों में वायु और अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है।

गुणकर्म

लघुस्तद्विपरीतः स्याल्लेखनो रोपणस्तथा सु.सू. 46/519 (लेखन पत्तलीकरण: – डल्हण )
लघु पथ्यं परं प्रोक्तं कफघ्नं शीघ्रपाकि च। भावप्रकाश

भाव प्रकाश के अनुसार:

  • लेखन – शरीर को कृश करने वाला। (खुरचना)
  • रोपण – व्रण का रोपण करने वाला। (आरोग्य करना )
  • पथ्य – लघु गुण परम् पथ्य है।
  • कफघ्न – कफ का शमन करता है। (कफ को शांत करता है)
  • शीघ्रपाकि- शीघ्रता से पचन होने वाला। (आसानी से पचने योग्य)

चिकित्सीय महत्त्व

  • सन्तर्पणजन्य व्याधियों में लघु गुणयुक्त द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है।
  • बढ़े हुए धातुओं को कम करने के लिए लघु गुणयुक्त द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है।
  • मन्दाग्नि की अवस्थामें लघु द्रव्य उपयुक्त है।

कहाँ वर्जित है ?

  • अपतर्पणजन्य व्याधियों में ।
  • अत्यग्नि की अवस्था में

उदाहरण

शालि, चाँवल, मुद्ग, तक्र, कपिंजल पक्षी मांस आदि ।

प्रकृतितः लघु द्रव्य

तत्र शालिषष्टिकमुद्गलावकपिंजलैणशशशरभशम्बरादीन्हारद्रव्याणि प्रकृतिलघुनि च.सू.5/5

शालि, पष्टिक चाँवल, मुद्ग, लाव, कपिंजल (गौरतित्तिर), एण (कृष्णसार), शश, शरभ ( महाश्रृंगी हरिण:), शम्बर आदि आहार प्रकृतितः लघु होते हैं।

गुरु और लघु गुण में अंतर

गुरुलघु
1इन्में पृथ्वी और जल महाभूत की प्रधानता होती है। इन्में अग्नि, वायु, आकाश महाभूत की प्रधानता होती है। 
2यह भारीपन पैदा करता हैयह हल्कापन पैदा करता है।
3स्थूलयकर (वसा का कारण बनता है)कर्ष्याकार (कमजोरी का कारण बनता है)
4मल-वृद्धिकारा (मल को बढ़ाता है)मल-क्षयकर (मल को कम करता है)
5कफकारा (कफ को बढ़ाता है)कफहारा (कफ कम करता है)
6अग्निमांद्यता (भूख कम होने का कारण)अग्निदीपक (भूख पैदा करता है)
7अंगसदकारा (असुविधा का कारण बनता है)अंग लाघवकर (आराम का कारण बनता है)
8वातहारा (वात कम करता है)वातकारा (वात बढ़ाता है)
9बृंहण, तर्पण, बल्य (ऊर्जावान)कृशन, अपतर्पण (ऊर्जा कम करें)
10अपथ्य (अस्वस्थ)पथ्य (स्वास्थ्य के लिए अच्छा)।
11चिरापाकी (विलंबित पाचन)शिघ्रपाकी (त्वरित पाचन)
12अलस्यकारा – अनुत्साहकारा (नीरसता का कारण बनता है)अलास्याहारा
13Ex: खर्जुरा, दही, माशालजा, छाछ, गरम पानी।
गुर्वादि गुणों मे भेद

मन्द (जो शमन का कारक है। )

व्याख्या

शमने मन्दः ।

– अ.हृ.सू.1 / 18 पर हेमाद्रिटीका

जिस गुण के कारण शमन कर्म होता है, उस गुण को मन्द गुण कहते हैं।

महाभूत प्राधान्य

मन्द गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी और जल महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू.26/11)

गुणकर्म

मन्दो यात्राकर स्मृतः ।

– सु.सू.46/522
  • यात्राकर- मन्द गुण के कारण शरीर के भाव पदार्थों की गति में कमी आती है। शरीर में स्थायित्व उत्पन्न होता है।
  • मन्द गुण कफदोष की वृद्धि करता है और पित्त का शमन करता है। ((कफ को बढ़ाता है और पित्त को शांत करता है)
  • मन्द गुण अग्निमांद्य करता है। (पाचन क्रिया को कम करता है)

चिकित्सीय महत्त्व

  • मन्द गुण धातु की वृद्धि करता है।
  • पाक एवं स्रावहर है।
  • अतिसार की अवस्था में मन्द गुणात्मक द्रव्यों का प्रयोग किया जा सकता है।

कहाँ वर्जित है ?

  • कफवृद्धि की अवस्था में |
  • मलबद्धता की अवस्था में।

उदाहरण

वत्सनाभ (मीठा विष ) अहिफेन, गुडुचि (गिलोय)) आदि । 

तीक्ष्ण (तीखापन)

व्याख्या

शोधने तीक्ष्णः ।

– अ.ह.सू.1/18 पर हेमाद्रिटीका

जिस गुण के कारण शोधन कर्म होता है, उस गुण को तीक्ष्ण गुण कहते हैं ।

महाभूत प्राधान्य

तीक्ष्ण गुणयुक्त द्रव्यों में अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है। च. सू. 26/11

गुणकर्म

दाहपाककरस्तीक्ष्णः स्त्रावणः । सु.सू.46/518
तीक्ष्णं पित्तकरं प्रायो लेखनं कफवातहृत् । भावप्रकाश

  • दाहकर – तीक्ष्ण गुण के कारण शरीर के दाह उत्पन्न होता है। (जलन का कारण बनता है)
  • पाककर – तीक्ष्ण गुण से पाक की उत्पत्ति होती है।
  • स्रावण: – स्रावोत्पत्ति में कारक है। (बहाव)
  • पित्तकर – पित्त को बढ़ाता है।
  • लेखन – धातु – उपधातु, दोष और मलों का लेखन करता है।
  • कफवातहृत् – कफ और वात का शमन करता है। (कफ और वात को शांत करता है)

चिकित्सीय महत्त्व

  • तीक्ष्ण गुण बढ़े हुए कफवात और धातुओं के क्षय में कारक हैं।
  • पाण्डु रोग में तीक्ष्ण गुणात्मक द्रव्यों से वमन एवं विरेचन का प्रयोग किया जाता है।
  • लेख्य व्याधियों में तीक्ष्णगुणात्मक द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है।
  • तीक्ष्णगुणात्मक द्रव्य अग्निवर्धन का कार्य करते हैं।

कहाँ वर्जित है ?

  • पित्तवृद्धि की अवस्था में 
  • क्षय की अवस्था में ।

उदाहरण

मरिच (Piper nigrum), लशुन, जयपाल, पिप्पली (Piper longum) आदि।

मंदतीक्ष्ण
यह शरीर में सुस्ती पैदा करता हैयह शरीर में फुर्ती पैदा करता है
पृथ्वी और जल की प्रधानताअग्नि की प्रधानता
शमन-क्रिया का कारण बनता हैशोधन, दाह, पाक का कारण बनता है
कफ-वर्धक, पित्त शामकपित्तवर्धक और वात-कफहार
कफकारी (निकास का कारण बनता है))लेखनकारी
उदाहरण- गुडुचि, दधि, कुटज, वत्सनाभउदाहरण – पिप्पली, मारीच, शुंथि
गुर्वादि गुणों मे भेद

शीत (शीतलता)

व्याख्या

स्तम्भने हिम।

– अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका

जिस गुण के कारण शरीर में स्तम्भन कार्य उत्त्पन्न हो, उस गुण को शीत गुण कहते हैं।

महाभूत प्राधान्य

शीत गुणयुक्त द्रव्यों में जल महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू. 26/11)

गुणकर्म

हृलादनः स्तम्भनः शीतो मूर्च्छातृट्स्वेददाहजित् ।

सु.सू. 46/515
  • हृलादन -मन को आल्हादित या प्रसन्न करने वाला (आनंद की अनुभूति)
  • स्तम्भन-  शरीर के भावों को स्तम्भित (रोकना) करने वाला। (बंद करना)
  • शीत- शरीर में शीतलता लाने वाला। (ठंडक)
  • मूर्च्छाजित् – मूर्च्छा को दूर करने वाला । (बेहोशी दूर करना)
  • तृजित् – तृष्णा को दूर करने वाला। (प्यास बुझाना)
  • स्वेदजित् – स्वेद को दूर करने वाला। (पसीना कम करता है)
  • दाहजित- दाह को जितने वाला। (जलन कम करता है)
  • यह पित्तहार (पित्त-प्रकोप को कम करता है)
  • वात-कफकार (वात और कफ दोष को बढ़ाता है)
  • धातु-वृद्धि कार (शरीर का निर्माण करता है)
  • रक्त, मुत्र, पुरिष और स्वेद का स्तम्भक (रक्तश्रव, अतिमूत्र, विरेचन तथा अति-स्वेद) को प्रतिबंधित करता है)

चिकित्सीय महत्त्व

  • उष्णताजन्य व्याधियों में शीत गुणयुक्त द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है।
  • उष्ण गुण से बढ़ें हुए पैत्तिक व्याधियों में शीत गुणात्मक द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है। उदाहरण- उष्ण गुण से बढ़े हुए पैत्तिक अम्लपित्त में शीत गुणात्मक प्रवालपंचामृत से चिकित्सा की जाती है।
  • मूर्च्छा, दाह आदि में शीत गुणात्मक द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है।

कहाँ वर्जित है ?

  • शीतजन्य व्याधियों में ।
  • मन्दाग्नि की अवस्था में।
  • शीत गुण से उत्पन्न वातिक एवं श्लैष्मिक व्याधियों में।

उदाहरण

चन्दन, कमल, नारियाल पानी,  उशीर आदि ।

उष्ण (गर्म)

व्याख्या

स्वेदने उष्णः ।

– अ.हृ.सू.1/18 पर हेमाद्रिटीका

जिस गुण के कारण शरीर में स्वेदन कार्य उत्पन्न हो, उस गुण को उष्ण गुण कहते हैं।

महाभूत प्राधान्य

उष्ण गुणयुक्त द्रव्यों में अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू.26/11)

गुणकर्म 

उष्णस्तद्विपरीत स्यात् पाचनश्च विशेषतः ।

सु.सू. 46/515

शीतशूलव्युपरमे स्तम्भगौरवनिग्रहे।
संजाते मार्दवे स्वेदे स्वेदनाद्विरतिर्मता ।।(स्वेद इति स्वेदभवे घर्मे) –

च. स
  • पाचन – उष्ण गुण पाचन करने वाला है। (पाचन) उपरोक्त चरकोक्त श्लोक स्वेद के गुणों का है। स्वेद के कर्मों का कारण उसके भीतर छिपी उष्णता है ।
  • शीतव्युपरम् – शीत को कम करने वाला। (ठंड शांत करता है)
  • शूलव्युपरम् – शूल को कम करने वाला। (दर्द शांत करता है)
  • स्तम्भनिग्रहण – स्तम्भ को दूर करने वाला । (जकड़न दूर करता है)
  • गौरवनिग्रहण- गौरवता को दूर करने वाला। (भारीपन कम करता है)

चिकित्सीय महत्त्व

  • शीतजन्य व्याधियों में उष्ण गुणयुक्त द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है।
  • शीत गुण से बढ़ें हुए वातिक एवं श्लैष्मिक व्याधियों में उष्ण गुणात्मक द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है। उदाहरण – शीत गुण से स्तम्भित वात में उष्ण स्वेदन किया जाता है।
  • ज्वर में स्वेद उत्पत्ति के लिए उष्ण गुणात्मक स्वेदल द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है।

कहाँ वर्जित है ?

  • उष्णजन्य व्याधियों में।
  • दीपन-पाचन कर्म के लिए उष्ण गुणात्मक त्रिकटु का प्रयोग किया जाता है।
  • तीक्ष्णाग्नि की अवस्था में |
  • उष्ण गुण से उत्पन्न पैत्तिक व्याधियों में ।

उदाहरण

मरिच(काली मिर्च), भल्लतक (अंकन अखरोट ), चित्रक, शुंठी  (सोंठ) आदि ।

शीतउष्ण
1यह ठंडा हैयह गर्म है।
2जलभूत प्रधानताअग्निभूत प्रधानता
3प्रसन्नता देता हैअप्रसन्नता देता है
4दोष-स्तम्भकदोष-प्रवर्तक
5अग्नि साधकअग्नि-दीपक
6पित्तहारापित्तकारा
7वात-कफकरवात-कफहारा
8मुरच्छा, दाहा, तृष्णा, स्वेद को कम करता हैमुरच्छा, दाहा को प्रेरित करता है
9धातु-वृद्धिकाराधातु-शैथिल्यकार
10 चंदना, पद्मक, उशीरा, नारियल पानीचित्रक, अग्निमंथा,मरीच (काली मिर्च), गुग्गुलु, छाया
गुर्वादि गुणों मे भेद

स्निग्ध (तेलयुक्त )

व्याख्या

क्लेदने स्निग्ध ।

– अ.ह.सू.1/18 पर हेमाद्रिटीका

जिस गुण के कारण शरीर में क्लेद (गीलापन) उत्त्पन्न हो, उस गुण को स्निग्ध गुण कहते हैं।

महाभूत प्राधान्य

पृथिव्यम्बुगुणभूयिष्ठः स्नेहः ।

-सु.सू.41/15

स्निग्ध गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी और जल महाभूत की प्रधानता होती है।

गुणकर्म

  • स्नेह मार्दवकृत् स्निग्धो बलवर्णकरस्तथा । सु.सू. 46/515
  • स्निग्धं वातहरं श्लेष्मकारि वृष्यं बलावहम् ।- भावप्रकाश
  • मार्दवकृत् – स्निग्ध गुण के द्रव्य शरीर में मृदुता लाते हैं ।
  • बलकर- स्निग्ध गुण बल को बढ़ाता है। (शक्ति में सुधार करता है)
  • वर्णकर – वर्ण को ठीक करता है। (रंग सुधारता है)
  • वातहर – वात को कम करने वाला। (वात को शांत करता है)
  • श्लेष्मकारि – कफ को बढ़ाता है। (कफ बढ़ाता है)
  • वृष्य – स्निग्ध गुण वाजीकर है। ((कामोत्तेजक)

चिकित्सीय महत्त्व

  • रूक्षताजन्य व्याधियों में स्निग्ध गुणयुक्त द्रव्यों की जाती है।
  • रूक्ष गुण से बढ़ें हुए वातिक व्याधियों में स्निग्ध गुणात्मक द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है। उदाहरण रूक्षता के कारण उत्पन्न त्वक्दरण में स्निग्ध गुणात्मक घृत या तैल से स्नेहन अपेक्षित है।

कहाँ वर्जित है ?

  • स्निग्धताजन्य व्याधियों में ।
  • मेदस्वी पुरुषों में |
  • नित्यमन्दाग्नि वाले पुरुष में।
  • तृष्णा, मूर्च्छा से ग्रसित व्यक्ति में ।

उदाहरण

घृत, तैल, वसा, मज्जा, तिल आदि ।

रूक्ष (सूखापन)

व्याख्या

शोषणे रूक्षः।

– अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका

जिस गुण के कारण शरीर के भावपदार्थों का शोषण होता है, उस गुण को रूक्ष गुण कहते हैं।

महाभूत प्राधान्य

रूक्ष गुणयुक्त द्रव्यों में अग्नि और वायु महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू.26/11)

गुणकर्म

रूक्षस्तद्विपरीतः स्याद्विशेषात् स्तम्भनः खरः |- सु.सू. 46/516|
रूक्षं समीरणकरं परं कफहरं मतम् -भावप्रकाश

  • स्तम्भन – शरीर के भावों को स्तम्भित (रोकना) करने वाला।
  • खर- शरीर के भावों में खरता उत्पन्न करता है।
  • समीरणकरम् – वात को बढ़ाने वाला।
  • कफहरम् – कफ को कम करता है।

चिकित्सीय महत्त्व

  • स्निग्धताजन्य व्याधियों में रूक्ष गुणयुक्त द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है।
  • स्निग्ध गुण से बढ़ें हुए श्लैष्मिक व्याधियों में रूक्ष गुणात्मक द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है।

कहाँ वर्जित है ?

  • रूक्षताजन्य व्याधियों में ।
  • कृश पुरुषों में ।

उदाहरण

  • बाजरा, गोमूत्र, मधु, आसव, अरिष्ट आदि ।
स्निग्ध रूक्ष 
यह स्निग्धता का कारण बनता हैयह रुक्षता का कारण बनता है
जलभूत प्रधानतापृथ्वी और वायुभूत प्रबलता
मृदुत्व को प्रेरित करता हैकठिनता को प्रेरित करता है
4बल-वर्णकारबल-वर्ण-क्षय
5वाताहारावाताकरा
6कफकार कफहारा
7वृक्षीय वृक्षीय नहीं 
8क्लेदन प्रधान क्रिया हैशोषन प्रधान क्रिया है
9जैसे- घृत, तैला, वासा, मज्जाजैसे –  यव, गोमूत्र, रसांजन
गुर्वादि गुणों मे भेद

स्थिर (गतिहीनता के लिए ज़िम्मेदार है))

व्याख्या

धारणे स्थिरः ।

अ.ह.सू.1/18 पर हेमाद्रिटीका

जिस गुण के कारण धारण कर्म (रोकने का कार्य) होता है, उस गुण को स्थिर गुण कहते हैं।

महाभूत प्राधान्य

स्थिर गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी महाभूत की प्रधानता होती है।- च. सू. 26/11

गुणकर्म

सरविपरीतः स्थिर: । सु.सू.41/4 (1) पर डल्हण टीका
स्थिर: निश्चल: चलप्रतिबन्धकः ।

चलप्रतिबन्धक – स्थिर गुण चल गुण को रोकने वाला होता है। (गतिहीनता)

चिकित्सीय महत्त्व

  • स्थिर गुणात्मक द्रव्य वात और मल का स्तम्भन करने में सहायक है।
  • स्थिर गुणात्मक द्रव्य धातुवर्धनार्थ प्रयुक्त किये जाते हैं।
  • शुक्रस्तम्भक के रूप में स्थिर गुणात्मक द्रव्यों का उपयोग किया जाता है।

कहाँ वर्जित है ?

  • मलावष्टम्भ की अवस्थामें।
  • स्तम्भ की अवस्थामें ।

उदाहरण

केला, प्रवाल, जातिफल (जायफल), खदिर, अश्वगंधा, बला आदि ।

सर (गतिशीलता)

व्याख्या

प्रेरणे चलः (सरः ) ।

-अ.हृ.सू.1/18 पर हेमाद्रिटीका

जिस गुण के कारण प्रेरण कर्म होता है, उस गुण को सर गुण कहते हैं।

महाभूत प्राधान्य

सर गुणयुक्त द्रव्यों में जल महाभूत की प्रधानता होती है। – च.सू. 26/11

गुणकर्म

सरोह्यनुलोमनः प्रोक्तः । – सु.सू.46/522

– सु.सू.46/522

अनुलोमन:- सर गुण वात और मल को प्रवृत्त करता है।

चिकित्सीय महत्त्व

सर गुणात्मक द्रव्य वातानुलोमक होने से मलावष्टम्भ एवं उदावर्त में उपयुक्त है।

कहाँ वर्जित है ?

  • अतिसार की अवस्थामें ।
  • क्षय की अवस्थामें ।

उदाहरण

हरीतकी (Terminalia chebula), त्रिवृत्त, अमलतास, स्वर्णपत्री, गोरोचन आदि ।

स्थिरसर
1यह गतिहीनता का कारण बनता हैयह गतिशीलता का कारण बनता है
2यह वात और मल की गति को प्रतिबंधित करता हैइससे वात और मल का निष्कासन होता है
3यह पृथ्वीभूत प्रधानता के साथ हैयह जलाभूत प्रधानता वाला है
4यह कषाय, तिक्त और मधुरा रस में देखा जाता हैलवण और कटु रस में यह देखा जाता है
5यह कफ-वृद्धि का कारण बनता हैइससे वात-पित्त-वृद्धि होती है
6इसमें स्तम्भन गुण हैइसमें अनुलोमना गुण है
7धारण मुख्य क्रिया हैप्रेरणा या गति मुख्य क्रिया है
8उदाहरण – जतिफल, बला, अश्वगंधाउदाहरण – अमलतास, स्वर्णपत्री, गोरोचन

इसकी अगली पोस्ट मे हम शेष 10 गुर्वादि गुणों का विस्तार से अध्ययन करेंगे।

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