धरती जिसे मृत्यु लोक भी कहा जाता है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु धरती पर नष्ट होती है। हमारा शरीर जो की पंचमहाभूतों का बना हुआ है, जिसमे आत्मा निवास करती है। यह आत्मा भी अपने पिछले जन्म के पाप पुण्य के आधार पर जीवन व्यापन कर जन्म मरण के चक्र मे घूमती रहती है। यह पंचभौतिक शरीर, चाहे वो मनुष्य, पक्षी, या पशु हो (योनिज) तथा पेड़-पौधे आदि हो सभी मे आत्मा के कारण ही शक्ति है। शरीर तो एक माध्यम मात्र है जिसके द्वारा जीवात्मा अपने कर्मानुसार सुख दुख का अनुभव करती है ।
गीत मे भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
गीता 13।1
एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।
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आत्मा शब्द निरुक्ति
- ‘अत सातत्य गमने’ धातु से आत्मा शब्द बना है, जिसका अर्थ है निरन्तर गति करने वाला ।
अत्- जो सभी को व्याप्त करता है ।
अप् – जो निरन्तर गति करता है ।
- अतति सकलं व्याप्नोति इति आत्मा ।
जो सम्पूर्ण शरीर को या विश्व को व्याप्त करता है, आत्मा कहते हैं।
आत्मा के पर्याय
जीव, चेतना धातु, देहि, शरीरि, द्रष्टा, क्षेत्रज्ञ, पुरूष, ज्ञ, सर्वज्ञ, निर्विकार, निर्गुण, वशी, कर्ता, सच्चिदानन्दरूप, ईश्वर, रसयिता, श्रोता, घ्राता, साक्षी आदि ।
आत्मा के लक्षण
तर्कसंग्रह के अनुसार
ज्ञानाऽधिकरणमात्मा।
(तर्कसंग्रह 16)
ज्ञान के अधिकरण (आश्रय) को आत्मा कहते हैं । ज्ञान का अधिकरण कालादि भी हो सकते हैं, अतः आत्मा का लक्षण ‘समवायसम्बन्धेन ज्ञानाऽधिकरणमात्मा’ ऐसा करना चाहिए। कालादि ज्ञान के समवाय-सम्बन्ध से अधिकरण नहीं है, केवल आत्मा है।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार
प्राणापान निमेषोन्मेष जीवन मनोगतीन्द्रियान्तरं विकाराः सुखदुःखेच्छाद्वेष प्रयत्नाश्चात्मनो लिंगानि।
(वै.द. अध्याय 3, आन्हिक 2, सूत्र 4)
आत्मा के लक्षण हैं- प्राण-अपान, निमेष, उन्मेष, जीवन, मनोगति, इन्द्रियान्तर विकार, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न ।
न्याय दर्शन के अनुसार
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानानि आत्मलिंगम् ।
न्या. द. अध्याय 1, आन्हिक 1 सूत्र 10
आत्मा के लक्षण हैं-इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान ।
चरक संहिता के अनुसार
प्राणापानौ निमेषाद्या जीवनं मनसो गतिः । इन्द्रियान्तरसंचारः प्रेरणं धारणं च यत् ।।
– च.शा. 1 /70-73
देशान्तरगतिः स्वप्ने पंचत्वग्रहणं तथा । दृष्टस्य दक्षिणेनाक्ष्णा सव्येनावगमस्तथा ।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं प्रयत्नश्चेतना धृतिः । बुद्धिः स्मृतिरहंकारो लिंगानि परमात्मनः ।।
यस्मात् समुपलभ्यन्ते लिंगान्येतानि जीवतः । न मृतस्यात्मलिंगानि तस्मादाहुर्महर्षयः ।।
चरक संहिता ने आत्मा के निम्न लक्षण बताएँ हैं
- प्राणापान- श्वास-प्रश्वास की क्रिया को प्राणापान कहते हैं ।
- निमेषाद्य – आँखों की पलकों को बन्द करना एवं खोलना उन्मेष-निमेष है।
- जीवन – आयुष्य को नियत रूप से उसकी मर्यादा में बाँधे रखना जीवन कहलाता है।
- मनसो गति- मन की एक स्थान से दूसरे स्थान में गति को मनसो गति कहते हैं।
- इन्द्रियान्तर संचार-मन एक इन्द्रिय से दूसरे इन्द्रिय में गति करता है, जिसे इन्द्रियान्तर संचार कहते हैं।
- प्रेरणा – इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करती है, उन्हें इसकी प्रेरणा आत्मा से प्राप्त होती है ।
- धारण आत्मा ग्रहण किये हुए विषयों को धारण करता है।
- देशान्तर गतिः स्वप्ने स्वप्न में एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना, यह मन का कार्य है । परन्तु मन के गति का कारण आत्मा है
- पंचत्वग्रहणम् – मृत्यु का अर्थ ही पंचत्व का ग्रहण करना है ।
- दृष्टस्य दक्षिणेनाक्ष्णा सव्येनावगमस्तथा दक्षिण नेत्र से जो विषय देखा गया है, उसी का ज्ञान वाम नेत्र से भी होना यह आत्मा का लक्षण है।
- इच्छा – अभिलाषा को इच्छा कहते हैं ।
- द्वेष – क्रोध को द्वेष कहा जाता है। प्रज्वलनात्मक भावना को क्रोध कहते हैं।
- सुख – अनुकूल वेदनाओं को सुख कहते हैं
- दुःख – प्रतिकूल वेदनाओं को दुःख कहते हैं ।
- प्रयत्न – किसी कार्य को आरम्भ करने की प्रवृत्ति जिससे होती है उसे प्रयत्न कहते हैं।
- चेतना – चेतना ज्ञानमात्रम् ।
- धृति – धारण करने की क्रिया को धृति कहते हैं ।
- बुद्धि – ऊहापोह करने की शक्ति को बुद्धि कहते हैं।
- स्मृति – अनुभवजन्य ज्ञान को स्मृति कहते हैं।
- अहंकार – अहं को अहंकार कहते हैं ।
उपरोक्त सभी लक्षण आत्मा के है। आत्मायुक्त शरीर में ही ये लक्षण प्राप्त होते हैं।
आत्मा के गुण
इसके 14 गुण है
- बुद्धि
- द्वेष
- पृथकत्व
- धर्म
- प्रयत्न
- संयोग
- अधर्म
- संख्या
- विभाग
- परिमाण
- भावना
- सुख
- दुःख
- इच्छा
आत्मा के भेद
आत्मा एक और विभु है, परन्तु उपाधि भेद से इसके भेद किये गये हैं ।
तर्कसंग्रह के अनुसार
स द्विविधो जीवात्मा परमात्मा च ।
तर्कसंग्रह 16
तत्रेश्वरः सर्वज्ञः, परमात्मा एक एव ।
जीवस्तु प्रतिशरीर भिन्नो विभुर्नित्यश्च ।
आत्मा के दो भेद है – (1) परमात्मा और (2) जीवात्मा । परमात्मा एक है। इसे ईश्वर और सर्वज्ञ कहा गया है। जीवात्मा विभु और नित्य है, और वह प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न है।
आयुर्वेद के अनुसार
आत्मा के तीन भेद है –
- परमात्मा
- अतिवाहिक पुरूष या सूक्ष्मशरीर युक्त आत्मा और
- स्थूल चेतन शरीर में रहने वाला या कर्मपुरूष
परमात्मा
निर्विकारः परस्त्वात्मा सत्त्वभूतगुणेन्द्रियैः ।
च.सू. 1/56
चैतन्ये कारणं नित्यो द्रष्टा पश्यति हि क्रियाः ।।
- परमात्मा निर्विकार (सुख – दुःख रहित ) है
- मन, पंचभूत, भूतगुण (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध और इन्द्रियों से युक्त है।
- चैतन्य का कारण है ।
- नित्य (आदि – अन्त रहित ) है ।
- द्रष्टा (जगत् का दर्शक ) है ।
- क्रियाओं को देखने वाला है।
- परमात्मा की संख्या एक है
- सर्वव्यापक है।
- सृष्टिकर्ता है।
अतिवाहिक पुरूष
पूर्वोत्पन्नमसक्तं नियतं महदादिसूक्ष्मपर्यन्तम् ।
सांख्यकारिका 40
संसरति निरूपभोगं भावैरधिवासितं लिंगम् ॥
- पूर्वोत्पन्नम्- सृष्टि के प्रारम्भ में प्रकृति के द्वारा प्रत्येक पुरूष के लिए पृथक्-पृथक् सूक्ष्म शरीर उत्पन्न हुआ।
- असक्तम् – सूक्ष्म शरीर शिला में भी प्रवेश कर सकता है।
- नियतम्- सूक्ष्म शरीर नियत है। यह सृष्टि उत्पत्ति से लेकर महाप्रलय तक रहता है।
- महदादिसूक्ष्मपर्यन्तम् – सूक्ष्म शरीर 18 तत्त्वों से बना है – महत्, अहंकार, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन और पाँच सूक्ष्म तन्मात्राएँ।
- संसरति – एक स्थूल शरीर को त्याग कर नये स्थूल शरीर को धारण करता है।
- निरूपभोगम् – स्थूल शरीर के बिना यह भोगायतन नहीं होता है, अत: यह बार-बार स्थूल शरीर का धारण करता है।
- भावैरधिवासितम् – बुद्धि में आठ भाव होते हैं – धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, वैराग्य- अवैराग्य, ऐश्वर्य- अनैश्वर्य । सूक्ष्म शरीर में ये आठ भाव होते हैं, क्योंकि सूक्ष्म शरीर बुद्धि से युक्त होता है।
- सूक्ष्म शरीर सभी योनियों में प्रवेश कर सकता है।
- इसे दिव्य दृष्टि से ही देखा जा सकता है।
- यह जीवात्मा के देहान्तर गमन में सहायक है।
इस तरह सूक्ष्म शरीर को सांख्यदर्शन ने 18 तत्त्वों का माना है। अन्य स्थान पर महत् और अहंकार को एक मानकर 17 तत्त्वों का कहा है। एक स्थूल शरीर के मृत हो जाने के पश्चात् अन्य स्थूल शरीर में प्रविष्ट होने तक जीवात्मा एक अन्य शरीर को धारण किये रहता है, जिसे सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर कहते हैं ।
आयर्वेद ने सूक्ष्म शरीर 17 तत्त्वों से युक्त माना है 4 भूत (पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु), मन, बुद्धि, अहंकार और 10 इन्द्रियाँ |
स्थूल शरीर युक्त आत्मा
- जिस शरीर को हम देखते हैं, जो जन्म-मृत्यु के चक्र में फँसा रहता है, उसे स्थूल शरीर कहते हैं।
- यह हर क्षण क्षीण होता रहता है।
- धातु भेद से इसके अनेक प्रकार कहे गए हैं – षड्धात्वात्मक, चतुर्विंशतिक आदि ।