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मन (मानस) निरूपण

मन नौ में सातवाँ करण द्रव्य है। मन शब्द के महत्व को निम्न प्रकार से जाना जा सकता है

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्

गीता 6।34
  • मननात् मनुष्य” शब्द का अर्थ है कि सृष्टि के जीवित प्राणियों में मनुष्य को किसी भी गतिविधि को करने से पहले मन या चिंतन क्षमता रखने के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
  • योग दर्शन और आयुर्वेद में मनो-निग्रह और मनो-स्वास्थ्य को अधिक महत्व दिया गया है।
  • इस संसार में दुःख का कारण मन को विषय से नियंत्रित न करना है।
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मन के पर्यायवाची

  • चित्त, मन, सत्त्व, हृद/हृत, स्वान्तः, अंतःकरण, उभयेन्द्रिय, शादिन्द्रिय, अतीन्द्रिय
  • मन शब्द की उत्पत्ति, ‘मन ज्ञाने’ धातु से हुई है।
  • “मन्यतेऽवबुध्यते ज्ञायते इति मनः” इसका अर्थ है, जिसके माध्यम से ज्ञान को माना या याद किया जाता है।
  • आत्मा चेतना और निष्क्रिया है। मन अचेतन है लेकिन क्रियावान, इसलिए मन आत्मा को उसके गुणों को प्रकट करने के लिए प्रभावित या सक्रिय करता है।
  • आत्मा के निकट सम्बन्ध से मन को चैतन्य प्राप्त होता है, इसे उभयेन्द्रिय कहते हैं।
  • यह ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय दोनों को नियंत्रित और आरंभ करता है इसलिए उभयेंद्रिय के रूप में जाना जाता है।
  • इसे सांख्य (सांख्यकारिका 25) द्वारा अहंकारिका के रूप में समझाया गया है, लेकिन आयुर्वेद द्वारा भौतिक (C.Sha. 1.66)।
  • इसमें 3 गुण (सत्व, रजस और तम) और 2 दोष (रजस-तमस) हैं

मनो लक्षण

  • चरक संहिता के अनुसार

लक्षणं मनो ज्ञानस्याभावो भाव एवं च।
सति ह्मात्मेन्द्रियार्थानां सन्निकर्षे न वर्तते॥
वैवृत्यान्मनसो ज्ञान सात्रिध्यात्तच्च वर्तते॥

( च. शा. 1.18-19)
  • ज्ञानस्य भाव और ज्ञानस्य अभाव मानस के 2 लक्षण हैं। इन्द्रियों को मन के सहारे ही वस्तुओं का ज्ञान होता है।
  • ज्ञानस्य भव (ज्ञान प्राप्त करना)। ज्ञान (ज्ञान) प्राप्त करने के लिए आत्मा, मन, इंद्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष (संबंध) मौजूद होने चाहिए।
  • ज्ञानस्य अभाव (ज्ञान प्राप्त नहीं करना)। यदि आत्मा, इन्द्रिय और अर्थ के साथ मन की उपस्थिति न हो तो ज्ञान की अनुभूति नहीं हो सकती।
  • न्याय दर्शन के अनुसार

युगपज्ज्ञानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमिति।

एक समय में मानस विभिन्न विषयों या वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर सकता है (दूसरों ने आत्मा, मन, इंद्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष के लिए युगपद शब्द का प्रयोग किया है)।

  • तर्कसंग्रह के अनुसार

सुखाद्यु पलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः। तच्च प्रत्यात्मनियतत्वादनन्तं परमाणुरूपं नित्यं च ।

(तर्कसंग्रह)

मन सुख, दुख आदि के बोध का माध्यम या साधन है। यह जीवात्मा में विलीन हो जाता है इसलिए यह नित्य, अनंत और परमाणु रूप है।

  • वैशेषिक दर्शन के अनुसार

‘आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षे ज्ञानस्याभावोऽभावश्र्च मनसः लिड़्गम् I

वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक दर्शन के अनुसार यह ज्ञानस्य भाव (ज्ञान की धारणा) और अभाव (ज्ञान की धारणा) का कारण है।
आत्मा + मन + इंद्रिय + अर्थ> ज्ञान (ज्ञान की धारणा)।
आत्मा + इन्द्रिय + अर्थ > ज्ञानस्य भाव (ज्ञान की अनुभूति)।

  • तर्कदीपिका के अनुसार

मनसो लक्षणं च स्पर्शरहित्वे सति क्रियावत्त्वम्

तर्कदीपिका

हालांकि मानस के पास आत्मा, इंद्रिय, अर्थ के सन्निकर्ष के साथ ज्ञानोत्पत्ति कर्म करने में सक्षम स्पर्श ज्ञान नहीं है।

इन सभी के आधार पर हम कह सकते है की मानस वह स्पर्शहीन या अद्रश्य नित्य द्रव्य है जो आत्मा, इंद्रिय और अर्थ के सयोग से ज्ञान की उत्पत्ति करता है। 

मनो-विषय

‘चिन्त्यं विचार्यमूह्यं च ध्येयं संकल्पमेव च । यत्किञ्चिन्मनसो ज्ञेयं तत्सर्वं ह्यर्थसंज्ञकम्’ । (च.शा. 1.20)
‘चिन्त्यं यत् मन: नानाविषयगतं चिन्तयति विचार्यं गुणतो दोषता वा यत् विवेच्यते’ (चरकोपस्कार)
‘उह्यं तर्कः’ । (योगीन्द्रनाथ)
‘एकाग्रता स्थिरता ध्येयं सङ्कल्प्यं मनसा यत् सम्यक् कल्प्यते कर्तव्या कर्तव्येन अवधार्यते’ । (योगीन्द्रनाथसेन)

चिन्त्य, विचार्य, उह्या, ध्येय व संकल्प मन की पाँच वस्तुएँ हैं।

  • चिन्त्यम्- पूर्व अनुभव या ज्ञान का चिंतन पिछले अनुभवों या ज्ञान को याद करना, चिंतन शब्द के आधार पर, मन को चित्त के रूप में भी जाना जाता है।
  • विचारी – ज्ञान का गुण-दोष-विचारण। कथित ज्ञान के गुणों या त्रुटियों के बारे में पूछताछ करना।
  • उह्या या तर्क- ज्ञान के गुण और दोष की जांच के बाद संभावित तर्क स्थापित करना।
  • ध्येय- तर्क के बाद यथार्थ ज्ञान के लिए अस्थिर मानस की एकाग्रता और स्थिरता (एकग्रता/स्थिरता) स्थापित करने के लिए ध्येय को समझाया गया है।
  • संकल्प- कर्तव्यकर्ताव्य-निर्णय । प्राथमिक 4 चरणों के बाद या इस चरण में संभावित मूल्यांकन के बाद मन कर्तव्य (क्या करें) और अकारत्व (क्या अस्वीकार करें) की स्थापना करता है।

मनो-गुण

अणुत्वमथ चैकत्वं द्वौ गुणौ मनसः स्मृतौ’

 (च. शा. 1.19)
  • एकत्व (oneness) – एक कारक
  • अणुत्व (minuteness) – सूक्ष्म या सूक्ष्म

एक समय में मन एकत्व लक्षण या गुण के कारण विभिन्न इंद्रियों के अधिक विषयों को नहीं देख सकता है, लेकिन कई विषयों या वस्तुओं को उसके अणुत्व (शिघ्रत्व) गुण के कारण एक समय में देखा जा सकता है।

–फूल की 100 पंखुडियों को सूई से चुभाने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सभी को एक ही बार चुभन होती है पर वास्तव में एक के बाद एक चुभती है।—-शिक्षक के व्याख्यान के दौरान यदि दिमाग तेज और तेज है तो हम व्याख्यान सुनते हैं और उसे जल्दी से लिख देते हैं, यदि नहीं तो हम शिक्षक को इसे दोबारा दोहराने के लिए कहते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि सुनने और लिखने की क्रिया साथ-साथ होती हुई प्रतीत होती है, लेकिन एक के बाद एक घटित होती है (पहले सुनना फिर लिखना)।

चरक के अनुसारप्रशस्तपाद के अनुसार
अनुत्वसांख्य
एकत्वपरिमाण
पृथक्त्वा
संयोग
विभाग
परत्वा
अपरत्व
संस्कार
मनो-गुण

त्रिगुण पर आधारित मनो-भेद

  • मन को एक बताया गया है लेकिन त्रिगुण के आधार पर इसे इस प्रकार समझा जा सकता है
    • सत्त्वगुण युक्त मन : व्यक्ति सत्य, पवित्र, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-चिंतन आदि अच्छे कार्य करता है।
    • रजोगुण युक्त मन : व्यक्ति में काम, क्रोध, ईर्ष्य, द्वेष, लोभ आदि गुणात्मक क्रियाओं का विकास होता है।
    • तमो गुण वाला मन : मोह, शोक, अलस्य, अज्ञान आदि गुणों से युक्त व्यक्ति।
      आयुर्वेद के अनुसार सात्विक मानस को स्वस्थ और राजसिका मानस और तामसिक मानस को मानसिक दोष माना गया है।
  • योग वसिष्ठ के अनुसार भाव की अभिव्यक्ति के आधार पर मानस के दो प्रकार बताए गए हैं:
    • बाह्य मन : भिन्न-भिन्न भावों की अभिव्यक्ति होती है।
    • अंत: मन: लज्जा, भया, मोह आदि मानस के भाव व्यक्त न होकर छिपे रहते हैं, इसे अंतःमन कहते हैं।
  • योगवशिष्ठ के अनुसार मानस को 3 प्रकार से समझा जा सकता है –
    • जाग्रत (जागने पर),
    • स्वप्ना (सपने में),
    • सुषुप्ति (गहरी नींद)।

मनः कर्म

‘इन्द्रियाभिग्रहः कर्म मनसः स्वस्य निग्रहः ।
ऊहो विचारश्च, परं ततः बुद्धिः प्रवर्तते ।।

(च.शा. 1.21 )

मन के 2 कार्य हैं, वे हैं –

  • इन्द्रियाभिग्रह,
  • स्वानिग्रह।

इन्द्रियाभिग्रह – स्वस्थ मन को अहिता विषय का अनुभव न करने के लिए इन्द्रियों को नियंत्रित करना चाहिए।

स्वानिग्रह- सत्त्व गुण द्वारा मानस का आत्मसंयम और बिना रजो और तमो दोष के तभी वह अहिता विषय से इन्द्रियों को वश में करने में सक्षम हो पाता है।

मनः स्थान

  1. ‘सत्त्वादिधामं हृदयं स्तनोरः कोष्ठमध्यगम्’ । (अ.हृ.शा. 4.13)
    मन का स्थान आत्मा के समान हृदय है, परन्तु उसका विस्तार मनोवाह स्त्रोतों द्वारा सम्पूर्ण शरीर में होता है।
  2. ‘ शिरस्ताल्वन्तर्गतः सर्वेन्द्रियपरं मनः’ । (भेलसंहिता)
    भेला संहिता के अनुसार मन का स्थान शिर और तालु के मध्य  है।

मनो-वृत्ति

साधक कुछ ग्रहण करता है और कुछ अस्वीकार करता है इस आधार पर मानस की वृत्ति को मोटे तौर पर दो समूहों में बांटा जा सकता है, वे हैं इच्छा और द्वेष।

  • इच्छा में शामिल हैं – हर्ष, काम, लोभ,।
  • द्वेष में क्रोध (क्रोध), शोक (दुःख), भय (भय), विषदा (अवसाद), ईर्ष्या, अभ्यसूया (ईर्ष्या), दैन्या (निराशा), मत्सर्य (द्वेष), काम (जुनून), लोभ (लालच) शामिल हैं।

मन इन्द्रियार्थ – भौतिकतत्त्व – अन्नमयतत्व

  • मन को अभयेन्द्र, षठ् इन्द्रिय, अतीन्द्रिय कहा जाता है।
  • सांख्य के अनुसार इंद्रिय और मन अहंकारिक हैं लेकिन आयुर्वेद के अनुसार वे पंचभौतिक हैं।
  • मानस आहार-विहार से पोषित होता है इसलिए इसे अन्नमय कहा जाता है।
  • छांदोग्योपनिषत के अनुसार, स्थूल आहार-कण मल का पोषण करता है, मध्यमा आहार-कण धातु का पोषण करता है और सूक्ष्म आहार-कण मानस का पोषण करता है।

अंतःकरण चतुष्टय

‘मनोबुद्धिरहङ्कार चित्तं करणमन्तरम् ।

संशयो निश्चयोगर्वा स्मरणं विषया अमीः’ ।। (वेदान्तदर्शन)

इन्द्रियाँ बाह्य कारण हैं (केवल वर्तमान ज्ञान की धारणा में सक्षम)।

अंतःकरण-चतुष्टय मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त (त्रिकाल ज्ञान अर्थात वर्तमान, भूत और भविष्य के लिए सक्षम) हैं। अन्ताल-कारण-चतुष्टय के स्वालक्षण्य निम्नलिखित हैं:

  • मन – संकल्प-विकल्प-संशय
  • बुद्धि-अध्यावासय (कर्तव्य-निश्चय)
  • अहंकार – अभिमान (अहंकार)
  •  चित्त – इष्ट-चिंतन या स्मरण (स्मृति)

यद्यपि मानस को एक ही कहा गया है, पर भिन्न-भिन्न कार्यों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है।

मन के विशेषत्व

  • यह अन्तरिन्द्रिय या अन्तःकरण है
  • यह प्रधान ज्ञान साधना है।
  • यह भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञान में सक्षम है।
  • यह भी शरीर की तरह रोग-अधिष्ठान है।
  • इसमें शरीरिका त्रिदोष की तरह मनो दोष (राजस और तमस) भी होता है
  • शरीर और मानस के स्वास्थ्य को एक साथ पूर्ण स्वास्थ्य माना जाता है।
  • इसमें मानस को नियंत्रित करने के लिए सत्ववजय नामक विशेष चिकित्सा है।
  • शरीर और मानस अविभाज्य (मनोदैहिक) हैं।
  • भौतिक कारक मानस को प्रभावित कर सकते हैं और मनिक कारक भौतिक को प्रभावित कर सकते हैं
  • शारीरिक उपचार (आहार-विहार-औषध) मनिक घावों को ठीक कर सकते हैं और मनोपचार शारीरिक घावों को ठीक कर सकते हैं।

उदाहरण अति-क्रोध पित्त-वृद्धि का कारण बनता है, पित्त-शमनोपचार क्रोध, कफ-वृद्धि, निद्रा, अलस्य आदि को बढ़ाता है।

मनुष्य के चरित्र के आधार के रूप में मन

सत्त्वमौपपादुकम्।” (C.Sha. 3.13)

मनुष्य के आचरण और व्यवहार के चरित्र को मानस की स्थिति द्वारा डिजाइन किया गया है, इसलिए इसे औपपादुकम् कहा जाता है। यह इंद्रियभिग्रहक (सभी इंद्रियों का स्वामी) है।

यदि यह विक्षिप्त हो तो-

  • वर्ण विकृत हो जाता हैं।
  • भक्ति (भक्ति) विकृत हो जाती है
  • सभी इंद्रियां भ्रम, मतिभ्रम, भय, गलत धारणा आदि के अधीन हो जाती हैं।
  • बल हानि (बहुत कमजोर हो जाता है)।
  • कई बीमारियों से ग्रस्त।

इसलिए पूर्ण स्वास्थ्य के लिए मन की सामान्य स्थिति आवश्यक है।

मन – द्रव्य या नहीं

आत्मा की तरह मन भी इन्द्रियों के लिए अदृश्य और अगोचर है क्योंकि यह इन्द्रियों के लिए एक श्रेष्ठ कारक भी है। लेकिन निस्संदेह यह एक सूक्ष्म द्रव्य है क्योंकि इसमें गुण (त्रिगुण) और कर्म (स्वानिग्रह-इन्द्रियाभिग्रह) का अविच्छेद्य संबंध है।

मनोवाह स्रोत

मनोवाह स्त्रोतों के वर्णन का प्रत्यक्ष सन्दर्भ आयुर्वेदिक ग्रन्थों में नहीं मिलता, परन्तु मूर्छा, अपस्मार, उन्मद, अभिन्यास, ज्वारा आदि प्रसंगों में सन्दर्भ मिलते हैं।

वतवाह स्रोत और मनोवाह स्रोत दूध और पानी की तरह आपस में जुड़े हुए हैं। मानस का दूषित होना मनोवाह स्त्रोतों के माध्यम से फैलता है और घावों का कारण बनता है और स्वास्थ्य सिद्धांत भी इसके माध्यम से प्रचार करते हैं और मनो दोष को ठीक करते हैं। इसे को सूक्ष्म मूर्त द्रव्य कहा जाता है इसलिए मनोवाह स्रोत बहुत सूक्ष्म और अदृश्य हो सकते हैं।

मनो निरूपन का सारांश

विशेषताएँविवरण
समानार्थी शब्दचित्त, मन, सत्त्व, अन्तरिन्द्रिय, उभयेन्द्रिय, अतीन्द्रिय, षड इन्द्रिय, हृद/हृत।
मनो निरुक्ति“मन्यतेऽवबुध्यते ज्ञायते इति मनः
मनो लक्षण1. ज्ञानस्य भाव, 2. ज्ञानस्य-अभाव
मनो विषय1. चिन्त्य, 2. विचारा, 3. उह्य, 4. ध्याय, 5) संकल्प
मनो गुणएकत्व, अनुत्व।
मनो-भेद1. सात्विक, राजस, तामस।2. बाह्य मन और अंतः मन3. जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति।
मनः कर्म1. इन्द्रियभिग्रह, 2. स्वानिग्रह
अंतःकरण चतुष्टय1. मन – समशय (कल्पना)2. बुद्धि – निश्चय (पुष्टि)3. अहंकार – गर्व (अहंकार)4. चित्त – स्मरण (स्मृति)
मन के त्रिगुणसत्व, रजस, तामस
मनो दोषराजस और तामस
मनो-द्रव्यत्वगुना और कर्म रखने के लिए
मन अधिष्ठान हैमनो रोग (राजस और तमसा) के लिए
मनो स्थानहृदय और शिरस
मनो अन्नमयतामन को सुषमा अहर-परमानु से पोषण मिलता है।
मनो-व्यापद1. चरित्र विकृत2. भक्ति भ्रष्ट3. इन्द्रियभिघात (भ्रम, भ्रम4. बाल-हानि5. रोग-ग्रस्ता
मनोवृत्ति1. इच्छा – हर्ष, काम, लोभ, आदि।2. द्वेष – क्रोध, भय, इर्ष्या, आदि।
मन साधन हैज्ञानोत्पत्ति (बंध – मोक्ष)
मनो प्रकृतिमूर्त – परमानुरूप, अचेतन – क्रियावन
ज्ञानोत्पत्ति साधनाआत्मा + मन + इन्द्रिय + अर्थ
इसके अस्तित्व का प्रमाणइन्द्रियों द्वारा नहीं माना जाना चाहिए प्रमाण आदि द्वारा मूल्यांकन किया जाना चाहिए

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